श्री विष्णु चालीसा (Shree Vishnu Chalisa Lyrics in Hindi) - नमो विष्णु भगवान खरारी By ANURADHA PAUDWAL Vishnu Chalisa - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind

 

श्री विष्णु चालीसा ( Shree Vishnu Chalisa Lyrics in Hindi) -  


दोहा

विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।

कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥


विष्णु चालीसा

नमो विष्णु भगवान खरारी कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।

प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥

सुन्दर रूप मनोहर सूरत सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।

तन पर पीताम्बर अति सोहत बैजन्ती माला मन मोहत ॥

शंख चक्र कर गदा विराजे देखत दैत्य असुर दल भाजे ।

सत्य धर्म मद लोभ न गाजे काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥

सन्तभक्त सज्जन मनरंजन दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।

सुख उपजाय कष्ट सब भंजन दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥

पाप काट भव सिन्धु उतारण कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।

करत अनेक रूप प्रभु धारण केवल आप भक्ति के कारण ॥

धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा तब तुम रूप राम का धारा ।

भार उतार असुर दल मारा रावण आदिक को संहारा ॥

आप वाराह रूप बनाया हिरण्याक्ष को मार गिराया ।

धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया चौदह रतनन को निकलाया ॥

अमिलख असुरन द्वन्द मचाया रूप मोहनी आप दिखाया ।

देवन को अमृत पान कराया असुरन को छवि से बहलाया ॥

कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।

शंकर का तुम फन्द छुड़ाया भस्मासुर को रूप दिखाया ॥

वेदन को जब असुर डुबाया कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।

मोहित बनकर खलहि नचाया उसही कर से भस्म कराया ॥

असुर जलन्धर अति बलदाई शंकर से उन कीन्ह लड़ाई ।

हार पार शिव सकल बनाई कीन सती से छल खल जाई ॥

सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी बतलाई सब विपत कहानी ।

तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥

देखत तीन दनुज शैतानी वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।

हो स्पर्श धर्म क्षति मानी हना असुर उर शिव शैतानी ॥

तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे हिरणाकुश आदिक खल मारे ।

गणिका और अजामिल तारे बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥

हरहु सकल संताप हमारे कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।

देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥

चाहता आपका सेवक दर्शन करहु दया अपनी मधुसूदन ।

जानूं नहीं योग्य जब पूजन होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥

शीलदया सन्तोष सुलक्षण विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।

करहुं आपका किस विधि पूजन कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥

करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण कौन भांति मैं करहु समर्पण ।

सुर मुनि करत सदा सेवकाई हर्षित रहत परम गति पाई ॥

दीन दुखिन पर सदा सहाई निज जन जान लेव अपनाई ।

पाप दोष संताप नशाओ भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥

सुत सम्पति दे सुख उपजाओ निज चरनन का दास बनाओ ।

निगम सदा ये विनय सुनावै पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥


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