वेदसार शिव स्तोत्रम् || वेदसार शिवस्तवः स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित
वेदसार शिवस्तोत्रम् वाक्यरूपेण वेदस्य सारम् अस्ति, जिसमें भगवान शिव की महिमा और महात्म्य का वर्णन है। इसे वचन, श्रवण, और ध्यान के माध्यम से पठने से भगवान शिव का आशीर्वाद मिलता है और भक्त उनके प्रति भक्ति भाव में समर्थ होता है।
इस वेदसार शिव स्तोत्र का हिंदी अर्थ सहित
पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥१॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"मैं उस महादेव को स्मरण करता हूँ, जो पशुओं के पति हैं, पापों का नाश करने वाले हैं, देवों के परमपति हैं, गजेन्द्र की कृत्ति के वासी हैं, और जटाजूट में स्थित गंगा की धारा को स्फुरित करने वाले हैं।"
जो सम्पूर्ण प्राणियोंके रक्षक हैं, पापका ध्वंस करनेवाले हैं, परमेश्वर हैं, गजराजका चर्म पहने हुए हैं तथा श्रेष्ठ हैं और जिनके जटाजूटमें श्रीगंगाजी खेल रही हैं, उन एकमात्र कामारि श्रीमहादेवजीका मैं स्मरण करता हूँ।
इस श्लोक में शिवजी की महिमा, शक्ति, और उनके सम्पूर्ण स्वरूप की स्तुति है।
महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥२॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"मैं सदा आनन्दमय प्रभु महेश, सुरेश, सुरार्तिनाशन, विश्वनाथ, विभु, विभूतियों से युक्त, विरूपाक्ष, इन्द्र, देवताओं के राजा, सूर्य, अग्नि और चंद्रमा के तीन आंगों वाले, पाँच वक्त्र वाले भगवान को स्मरण करता हूँ।"
चन्द्र, सूर्य और अग्नि – तीनों जिनके नेत्र हैं, उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देवदुःखदलन, विभु, विश्वनाथ, विभूतिभूषण, नित्यानन्दस्वरूप, पंचमुख भगवान् महादेवकी मैं स्तुति करता हूँ।
यह श्लोक भगवान शिव के विभिन्न रूपों, गुणों, और महिमा की स्तुति करता है।
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥३॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"मैं पाँच वक्त्र वाले भगवान शिव का भजन करता हूँ, जो गिरिजा के पति हैं, गणेश, नीले वर्ण के, गौणेश, गवेंद्र के ऊपर बैठे हुए, गणातीतरूपी, भवानी के पति, भस्मा से भूषित शरीर के साथ भवं और भास्वर रूप धारण करने वाले हैं।"
जो कैलासनाथ हैं, गणनाथ हैं, नीलकण्ठ हैं, बैलपर चढ़े हुए हैं, अगणित रूपवाले हैं, संसारके आदिकारण हैं, प्रकाशस्वरूप हैं, शरीरमें भस्म लगाये हुए हैं और श्रीपार्वतीजी जिनकी अर्द्धांगिनी हैं, उन पंचमुख महादेवजीको मैं भजता हूँ।
यह श्लोक भगवान शिव के विभिन्न रूपों और गुणों की महिमा को स्तुति करता है।
शिवाकान्त शम्भो शशांकार्धमौले
महेशान शूलिन् जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद-व्यापको विश्वरूप
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥४॥
इस श्लोक का अर्थ है:
हे पार्वतीवल्लभ महादेव! हे चन्द्रशेखर! हे महेश्वर! हे त्रिशूलिन्! हे जटाजूटधारिन्! हे विश्वरूप! एकमात्र आप ही जगत्में व्यापक हैं। हे पूर्णरूप प्रभो! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये।
"हे शम्भो, जिनका भक्ति-रूप में श्रीवत्सलता है, हे शशांक-अर्ध-मौलि, हे महेश, शूल धारी, और जटाजूट धारी, तुम एकमात्र जगत-व्यापक और विश्वरूप हो, हे पूर्णरूप, कृपा करो, कृपा करो, हे प्रभु!"
इस श्लोक में भक्त भगवान शिव की प्रार्थना करता है और उनके अनेक रूपों और गुणों की स्तुति करता है।
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारम-ओमकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"मैं उस परमात्मा को भजता हूँ, जो एक है, जगत का बीज है, आदि है, निर्मोही है, निराकार है, ओमकार द्वारा जाना जाता है। वह जिससे यह सब उत्पन्न होता है, जिसे बनाया और पाला जाता है, उस ईश्वर को मैं भजता हूँ, जिससे जगत में लीन हो जाता है।"
जो परमात्मा हैं, एक हैं, जगत्के आदिकारण हैं, इच्छारहित हैं, निराकार हैं और प्रणवद्वारा जाननेयोग्य हैं तथा जिनसे सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति और पालन होता है और फिर जिनमें उसका लय हो जाता है उन प्रभुको मैं भजता हूँ।
इस श्लोक में प्राणशक्ति, ओमकार, और ईश्वर के विश्वात्मक स्वरूप की महिमा की गई है।
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न ग्रीष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥६॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"जिसकी मूर्ति त्रिमूर्ति है, उसके लिए भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश भी अस्तित्व में नहीं हैं। उसके लिए न तो नींद, न तन्द्रा है, न गर्मी, न ठंडक, न देश, न वेष अर्थात विशेष भूषा है।"
जो न पृथ्वी हैं, न जल हैं, न अग्नि हैं, न वायु हैं और न आकाश हैं; न तन्द्रा हैं, न निद्रा हैं, न ग्रीष्म हैं और न शीत हैं तथा जिनका न कोई देश है, न वेष है, उन मूर्तिहीन त्रिमूर्तिकी मैं स्तुति करता हूँ।
इस श्लोक में भगवान शिव की परमात्मा स्वरूपता और उनकी अद्वितीयता को बयान किया गया है।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥७॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"मैं वह अजन्मा, शाश्वत, सम्पूर्ण कारणों का कारण, भासकों के केवल भासक, तुरीय अवस्था से परे, तमोगुण से परम, अनादि और अनंतरहित, परम पवित्र, द्वैत रहित भगवान शिव की शरण में जाता हूँ।"
जो अजन्मा हैं, नित्य हैं, कारणके भी कारण हैं, कल्याणस्वरूप हैं, एक हैं, प्रकाशकोंके भी प्रकाशक हैं, अवस्थात्रयसे विलक्षण हैं, अज्ञानसे परे हैं, अनादि और अनन्त हैं, उन परमपावन अद्वैतस्वरूपको मैं प्रणाम करता हूँ ।
इस श्लोक में भक्त अपनी प्रार्थना करता है और भगवान शिव की अद्वितीय और निर्गुण स्वरूपता की महिमा को स्तुति करता है।
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य॥८॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"हे विभु, जो सभी रूपों में प्रकट हैं, हे चिदानंदमय मूर्ति, जो चित्स्वरूप से युक्त हैं, हे तपोयोग में पहुँचने योग्य, हे श्रुतिज्ञान के द्वारा जानने योग्य, तुम्हारी पूजा करता हूँ।"
हे विश्वमूर्ते! हे विभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे चिदानन्दमूर्ते! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तप तथा योगसे प्राप्तव्य प्रभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदवेद्य भगवन्! आपको नमस्कार है, नमस्कार है।
इस श्लोक में भक्त भगवान शिव की विभूतियों और उनकी महिमा को स्तुति करता है और उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी के रूप में पूजता है।
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शम्भो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥९॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"हे प्रभु, जिसके हाथ में त्रिशूल हैं, हे विभु, जगत के नाथ, महादेव, शम्भो, महेश, त्रिनेत्रधारी, शिवाकांत, शान्त, पुरारे, आपको स्मरण करता हूँ। आपके सिवाय और कोई वर्णनीय नहीं है, और आपकी तुलना में कोई भी अन्य नहीं है।"
हे प्रभो! हे त्रिशूलपाणे! हे विभो! हे विश्वनाथ! हे महादेव! हे शम्भो! हे महेश्वर! हे त्रिनेत्र! हे पार्वतीप्राणवल्लभ! हे शान्त! हे कामारे! हे त्रिपुरारे! तुम्हारे अतिरिक्त न कोई श्रेष्ठ है, न माननीय है और न गणनीय है।
इस श्लोक में भक्त भगवान शिव की महिमा को स्तुति करता है और उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी के रूप में पूजता है।
शम्भो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वं
हंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥१०॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"हे शम्भो, महेश, करुणा के सागर, शूलपाणि, गौरीपति, पशुपति, पशुपाशनाशिन, काशीपति, तुम ही इस जगत के एकमात्र ईश्वर हो, जिसने इसे करुणा से पाला है, तुम हंसते हो, तुम पास होते हो, और तुम विद्वेषनाशक हो।"
हे शम्भो! हे महेश्वर! हे करुणामय! हे त्रिशूलिन्! हे गौरीपते! पशुपते! हे पशुबन्धमोचन! हे काशीश्वर! एक तुम्हीं करुणावश इस जगत्की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हो; प्रभो! तुम ही इसके एकमात्र स्वामी हो।
इस श्लोक में भक्त भगवान शिव की विशेषताओं और उनके महानुभाव की स्तुति करता है और उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी के रूप में पूजता है।
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन्॥११॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"हे देव, इस जगत की उत्पत्ति तुमसे होती है, हे भव, मैं तुम्हें स्मरण करता हूँ, हे विश्वनाथ, यह जगत तुम्हारे अलावा कहीं नहीं रहता, हे ईश्वर, यह जगत तुम्हारी आत्मा में स्थित होता है, हे चराचर विश्वरूप, तुम ही इसके लिए लिङ्गरूपी हो।"
हे देव! हे शंकर! हे कन्दर्पदलन! हे शिव! हे विश्वनाथ! हे ईश्वर! हे हर! हे चराचरजगद्रूप प्रभो! यह लिंगस्वरूप समस्त जगत् तुम्हींसे उत्पन्न होता है, तुम्हींमें स्थित रहता है और तुम्हींमें लय हो जाता है।
इस श्लोक में भक्त भगवान शिव की सर्वव्यापीता, जगत के उत्पत्ति और संसार के कारणों की स्तुति करता है और उन्हें जगत के सृष्टि, स्थिति, और संहार के स्वरूप में पूजता है।
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतो वेदसारशिवस्तवः सम्पूर्णम्।
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