आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi) - Jain Bhajan - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind


आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi) - Jain Bhajan:- 

आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi) - Jain Bhajan - Bhaktilok

आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi):-


बंदों पाँचों परम-गुरु चौबीसों जिनराज||

करूँ शुद्ध आलोचना शुद्धिकरन के काज || ||


सुनिये जिन अरज हमारी हम दोष किए अति भारी||

तिनकी अब निवृत्ति काज तुम सरन लही जिनराज || ||


इक बे ते चउ इंद्री वा मनरहित सहित जे जीवा||

तिनकी नहिं करुणा धारी निरदई ह्वै घात विचारी || ||


समारंभ समारंभ आरंभ मन वच तन कीने प्रारंभ||

कृत कारित मोदन करिकै क्रोधादि चतुष्ट्‌य धरिकै|| ||


शत आठ जु इमि भेदन तै अघ कीने परिछेदन तै||

तिनकी कहुँ कोलौं कहानी तुम जानत केवलज्ञानी|| ||


विपरीत एकांत विनय के संशय अज्ञान कुनयके||

वश होय घोर अघ कीने वचतै नहिं जात कहीने|| ||


कुगुरुनकी सेवा कीनी केवल अदयाकरि भीनी||

याविधि मिथ्यात भ्रमायो चहुँगति मधि दोष उपायो|| ||


हिंसा पुनि झूठ जु चोरी पर-वनितासों दृग जोरी||

आरंभ परिग्रह भीनो पन पाप जु या विधि कीनो|| ||


सपरस रसना घ्राननको चखु कान विषय-सेवनको||

बहु करम किए मनमाने कछु न्याय-अन्याय न जाने|| ||


फल पंच उदंबर खाये मधु माँस मद्य चित्त चाये||


दुइवीस अभख जिन गाये सो भी निस दिन भुँजाये||

कछु भेदाभेद न पायो ज्यों त्यों करि उदर भरायौ|| ||


अनंतानु जु बंधी जानो प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो||

संज्वलन चौकड़ी गुनिये सब भेद जु षोडश मुनिये|| ||


परिहास अरति रति शोग भय ग्लानि तिवेद संजोग||

पनवीस जु भेद भये इम इनके वश पाप किये हम|| ||


निद्रावश शयन कराई सुपने मधि दोष लगाई||

फिर जागि विषय-वन भायो नानाविध विष-फल खायो|| ||


आहार विहार निहारा इनमें नहिं जतन विचारा||

बिन देखी धरी उठाई बिन सोधी बसत जु खाई|| ||


तब ही परमाद सतायो बहुविधि विकल्प उपजायो||

कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है मिथ्या मति छाय गई है|| ||

मरजादा तुम ढिंग लीनी ताहूँमें दोष जु कीनी||

भिन-भिन अब कैसे कहिये तुम खानविषै सब पइये|| ||


हा हा! मैं दुठ अपराधी त्रस-जीवन-राशि विराधी||

थावर की जतन ना कीनी उरमें करुना नहिं लीनी|| ||


पृथ्वी बहु खोद कराई महलादिक जागाँ चिनाई||

पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो पंखातै पवन बिलोल्यो|| ||


हा हा! मैं अदयाचारी बहु हरितकाय जु विदारी||

तामधि जीवन के खंदा हम खाये धरि आनंदा|| ||


हा हा! मैं परमाद बसाई बिन देखे अगनि जलाई||

ता मधि जे जीव जु आये ते हूँ परलोक सिधाये|| ||


बींध्यो अन राति पिसायो ईंधन बिन सोधि जलायो||

झाडू ले जागाँ बुहारी चिवंटा आदिक जीव बिदारी|| ||


जल छानी जिवानी कीनी सो हू पुनि डार जु दीनी||

नहिं जल-थानक पहुँचाई किरिया विन पाप उपाई|| ||

जल मल मोरिन गिरवायौ कृमि-कुल बहु घात करायौ||

नदियन बिच चीर धुवाये कोसन के जीव मराये|| ||


अन्नादिक शोध कराई तामे जु जीव निसराई||

तिनका नहिं जतन कराया गलियारे धूप डराया|| ||


पुनि द्रव्य कमावन काजै बहु आरंभ हिंसा साजै||

किये तिसनावश अघ भारी करुना नहिं रंच विचारी|| ||

इत्यादिक पाप अनंता हम कीने श्री भगवंता||

संतति चिरकाल उपाई बानी तैं कहिय न जाई|| ||


ताको जु उदय अब आयो नानाविधि मोहि सतायो||

फल भुँजत जिय दुख पावै वचतै कैसे करि गावै|| ||


तुम जानत केवलज्ञानी दुख दूर करो शिवथानी||

हम तो तुम शरण लही है जिन तारन विरद सही है|| ||

जो गाँवपति इक होवै सो भी दुखिया दुख खोवै||

तुम तीन भुवन के स्वामी दुख मेटहु अंतरजामी|| ||


द्रोपदि को चीर बढ़ायो सीताप्रति कमल रचायो||

अंजन से किये अकामी दुख मेटहु अंतरजामी||


मेरे अवगुन न चितारो प्रभु अपनो विरद निम्हारो||

सब दोषरहित करि स्वामी दुख मेटहु अंतरजामी|| ||


इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ विषयनि में नाहिं लुभाऊँ||

रागादिक दोष हरीजै परमातम निज-पद दीजै|| ||


दोषरहित जिन देवजी निजपद दीज्यो मोय||

सब जीवन को सुख बढ़ै आनंद मंगल होय|| ||


अनुभव मानिक पारखी ‘जौहरि’ आप जिनंद||

यही वर मोहि दीजिए चरण-सरण आनंद||


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