आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi) - Jain Bhajan:-
आलोचना पाठ (Aalochana Path Lyrics in Hindi):-
बंदों पाँचों परम-गुरु चौबीसों जिनराज||
करूँ शुद्ध आलोचना शुद्धिकरन के काज || ||
सुनिये जिन अरज हमारी हम दोष किए अति भारी||
तिनकी अब निवृत्ति काज तुम सरन लही जिनराज || ||
इक बे ते चउ इंद्री वा मनरहित सहित जे जीवा||
तिनकी नहिं करुणा धारी निरदई ह्वै घात विचारी || ||
समारंभ समारंभ आरंभ मन वच तन कीने प्रारंभ||
कृत कारित मोदन करिकै क्रोधादि चतुष्ट्य धरिकै|| ||
शत आठ जु इमि भेदन तै अघ कीने परिछेदन तै||
तिनकी कहुँ कोलौं कहानी तुम जानत केवलज्ञानी|| ||
विपरीत एकांत विनय के संशय अज्ञान कुनयके||
वश होय घोर अघ कीने वचतै नहिं जात कहीने|| ||
कुगुरुनकी सेवा कीनी केवल अदयाकरि भीनी||
याविधि मिथ्यात भ्रमायो चहुँगति मधि दोष उपायो|| ||
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी पर-वनितासों दृग जोरी||
आरंभ परिग्रह भीनो पन पाप जु या विधि कीनो|| ||
सपरस रसना घ्राननको चखु कान विषय-सेवनको||
बहु करम किए मनमाने कछु न्याय-अन्याय न जाने|| ||
फल पंच उदंबर खाये मधु माँस मद्य चित्त चाये||
दुइवीस अभख जिन गाये सो भी निस दिन भुँजाये||
कछु भेदाभेद न पायो ज्यों त्यों करि उदर भरायौ|| ||
अनंतानु जु बंधी जानो प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो||
संज्वलन चौकड़ी गुनिये सब भेद जु षोडश मुनिये|| ||
परिहास अरति रति शोग भय ग्लानि तिवेद संजोग||
पनवीस जु भेद भये इम इनके वश पाप किये हम|| ||
निद्रावश शयन कराई सुपने मधि दोष लगाई||
फिर जागि विषय-वन भायो नानाविध विष-फल खायो|| ||
आहार विहार निहारा इनमें नहिं जतन विचारा||
बिन देखी धरी उठाई बिन सोधी बसत जु खाई|| ||
तब ही परमाद सतायो बहुविधि विकल्प उपजायो||
कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है मिथ्या मति छाय गई है|| ||
मरजादा तुम ढिंग लीनी ताहूँमें दोष जु कीनी||
भिन-भिन अब कैसे कहिये तुम खानविषै सब पइये|| ||
हा हा! मैं दुठ अपराधी त्रस-जीवन-राशि विराधी||
थावर की जतन ना कीनी उरमें करुना नहिं लीनी|| ||
पृथ्वी बहु खोद कराई महलादिक जागाँ चिनाई||
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो पंखातै पवन बिलोल्यो|| ||
हा हा! मैं अदयाचारी बहु हरितकाय जु विदारी||
तामधि जीवन के खंदा हम खाये धरि आनंदा|| ||
हा हा! मैं परमाद बसाई बिन देखे अगनि जलाई||
ता मधि जे जीव जु आये ते हूँ परलोक सिधाये|| ||
बींध्यो अन राति पिसायो ईंधन बिन सोधि जलायो||
झाडू ले जागाँ बुहारी चिवंटा आदिक जीव बिदारी|| ||
जल छानी जिवानी कीनी सो हू पुनि डार जु दीनी||
नहिं जल-थानक पहुँचाई किरिया विन पाप उपाई|| ||
जल मल मोरिन गिरवायौ कृमि-कुल बहु घात करायौ||
नदियन बिच चीर धुवाये कोसन के जीव मराये|| ||
अन्नादिक शोध कराई तामे जु जीव निसराई||
तिनका नहिं जतन कराया गलियारे धूप डराया|| ||
पुनि द्रव्य कमावन काजै बहु आरंभ हिंसा साजै||
किये तिसनावश अघ भारी करुना नहिं रंच विचारी|| ||
इत्यादिक पाप अनंता हम कीने श्री भगवंता||
संतति चिरकाल उपाई बानी तैं कहिय न जाई|| ||
ताको जु उदय अब आयो नानाविधि मोहि सतायो||
फल भुँजत जिय दुख पावै वचतै कैसे करि गावै|| ||
तुम जानत केवलज्ञानी दुख दूर करो शिवथानी||
हम तो तुम शरण लही है जिन तारन विरद सही है|| ||
जो गाँवपति इक होवै सो भी दुखिया दुख खोवै||
तुम तीन भुवन के स्वामी दुख मेटहु अंतरजामी|| ||
द्रोपदि को चीर बढ़ायो सीताप्रति कमल रचायो||
अंजन से किये अकामी दुख मेटहु अंतरजामी||
मेरे अवगुन न चितारो प्रभु अपनो विरद निम्हारो||
सब दोषरहित करि स्वामी दुख मेटहु अंतरजामी|| ||
इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ विषयनि में नाहिं लुभाऊँ||
रागादिक दोष हरीजै परमातम निज-पद दीजै|| ||
दोषरहित जिन देवजी निजपद दीज्यो मोय||
सब जीवन को सुख बढ़ै आनंद मंगल होय|| ||
अनुभव मानिक पारखी ‘जौहरि’ आप जिनंद||
यही वर मोहि दीजिए चरण-सरण आनंद||
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