भगवान शिव द्वारा श्रीराम के ब्रह्म-स्वरुप का निरुपण लिरिक्स (Bhagavaan shiv dvaara shreeraam ke brahm-svarup ka nirupan Lyrics in Hindi) - RamcharitManas - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind


भगवान शिव द्वारा श्रीराम के ब्रह्म-स्वरुप का निरुपण लिरिक्स (Bhagavaan shiv dvaara shreeraam ke brahm-svarup ka nirupan Lyrics in Hindi) - 


अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।

सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

( भावार्थ ):- अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और श्री रामचन्द्रजी के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रम रूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥115॥ 


सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥

( भावार्थ ):- सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि पुराण पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण अरूप (निराकार) अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥


* जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥

जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥2॥

( भावार्थ ):- जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?॥2॥


* राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥

सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥3॥

( भावार्थ ):- श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञान रूपी रात्रि हो तब तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल हो भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं।)॥3॥


* हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥4॥

( भावार्थ ):- हर्ष शोक ज्ञान अज्ञान अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म परमानन्दस्वरूप परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है॥4॥


दोहा :

* पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ।

रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

( भावार्थ ):- जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं प्रकाश के भंडार हैं सब रूपों में प्रकट हैं जीव माया और जगत सबके स्वामी हैं वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं- ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया॥116॥


चौपाई :

* निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥

जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥

( भावार्थ ):- अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया॥1॥


* चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥

उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥2॥

( भावार्थ ):- जो मनुष्य आँख में अँगुली लगाकर देखता है उसके लिए तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है जैसा आकाश में अंधकार धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता इसी प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।) ॥2॥


* बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥

सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥

( भावार्थ ):- विषय इन्द्रियाँ इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है) वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥


* जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥

जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥

( भावार्थ ):- यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥


दोहा :

*रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।

जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

( भावार्थ ):- जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥


एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥

जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥

( भावार्थ ):- इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है तो भी दुःख तो देता ही है जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥


* जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥

आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥2॥

( भावार्थ ):- हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है वही कृपालु श्री रघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है-॥2॥


* बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

( भावार्थ ):- वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है बिना ही कान के सुनता है बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥


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