अयोध्याकाण्ड मंगलाचरण (Ayodhyakand Mangalacharan Lyrics in Hindi) - Ramcharitmanas - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind

 


अयोध्याकाण्ड मंगलाचरण (Ayodhyakand Mangalacharan Lyrics in Hindi) -


|| द्वितीय सोपान-मंगलाचरण ||

श्लोक :

* यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके

भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।

सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा

शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्॥1॥

भावार्थ:-जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी मस्तक पर गंगाजी ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा कंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं वे भस्म से विभूषित देवताओं में श्रेष्ठ सर्वेश्वर संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक) सर्वव्यापक कल्याण रूप चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें॥1॥ 


* प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।

मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥2॥

भावार्थ:-रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुई वह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो॥2॥


* नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्।

पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥

भावार्थ:-नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं श्री सीताजी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष है उन रघुवंश के स्वामी श्री रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥3॥


दोहा :

* श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥

भावार्थ:-श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ जो चारों फलों को (धर्म अर्थ काम मोक्ष को) देने वाला है।


चौपाई :

* जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥

भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥

भावार्थ:-जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1॥


* रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥

मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥2॥

भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं जो सब प्रकार से पवित्र अमूल्य और सुंदर हैं॥2॥


* कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥

सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥3॥

भावार्थ:-नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3॥


* मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥

राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4॥

भावार्थ:-सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप गुण शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥4॥






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