अति प्रेम में भगवान के ऐश्वर्य की विस्मृति के कारण सीताजी की मनोदशा का वर्णन (Ati Prem Me Bhagvan ke eshvary Lyrics in Hindi) - RamcharitManas - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind


अति प्रेम में भगवान के ऐश्वर्य की विस्मृति के कारण सीताजी की मनोदशा का वर्णन (Ati Prem Me Bhagvan ke eshvary Lyrics in Hindi) - 


बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥


भावार्थ:-विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! 

उठो शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥3॥


* सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥

ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥


भावार्थ:-गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। 

उनके मन में न हर्ष हुआ न विषाद और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) 

से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए ॥4॥

दोहा :

* उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।

बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥


भावार्थ:-मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के 

उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥

चौपाई :

* नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥

मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥


भावार्थ:-राजाओं की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके 

वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया। (वे मौन हो गए)। 

अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू छिप गए॥1॥


* भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥

गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥


भावार्थ:-मुनि और देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे 

फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम सहित गुरु के 

चरणों की वंदना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी॥2॥


* सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥

चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥


भावार्थ:-समस्त जगत के स्वामी श्री रामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ 

हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही 

नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए॥3॥


* बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥

तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥


भावार्थ:-उन्होंने पितर और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। 

यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी 

शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की भाँति तोड़ डालें॥4॥


दोहा :

* रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।

सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥


भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को 

समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥

चौपाई :

* सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥

कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥


भावार्थ:-हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। 

कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं 

इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के 

हिलाए न हिल सका उसे तोड़ने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना 

और रामजी का उसे तोड़ने के लिए चल देना रानी को हठ जान पड़ा 

इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥


* रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥

सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥2॥


भावार्थ:-रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और 

सब राजा घमंड करके हार गए वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के 

हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं?॥2॥


* भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥

बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥3॥


भावार्थ:-(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं 

उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी परन्तु मालूम होता है-) 

राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति 

कुछ जानने में नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर 

(रामजी के महत्व को जानने वाली) सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! 

तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिए॥3॥


* कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥

रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥


भावार्थ:-कहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? 

किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। 

सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है॥4॥


दोहा :

* मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।

महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥


भावार्थ:-जिसके वश में ब्रह्मा विष्णु शिव और सभी देवता हैं 

वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले 

गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥256॥


चौपाई :

* काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥

देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥


भावार्थ:-कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को 

अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर संदेह त्याग दीजिए। 

हे रानी! सुनिए रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य ही तोड़ेंगे॥1॥


* सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥

तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥


भावार्थ:- सखी के वचन सुनकर रानी को (श्री रामजी के सामर्थ्य के संबंध में) विश्वास हो गया। 

उनकी उदासी मिट गई और श्री रामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। 

उस समय श्री रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस (देवता) से विनती कर रही हैं॥2॥



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