श्रीमद भागवत कथा लिरिक्स (Shri Madbhaagwat Katha Lyrics in Hindi) - Bhagavat Katha Shri Rasik Bhaiyyaji Maharaj - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind

श्रीमद भागवत कथा लिरिक्स (Shri Madbhaagwat Katha Lyrics in Hindi) - Bhagavat Katha Shri Rasik Bhaiyyaji Maharaj - Bhaktilok


श्रीमद भागवत कथा लिरिक्स (Shri Madbhaagwat Katha Lyrics in Hindi) - Bhagavat Katha Shri Rasik Bhaiyyaji Maharaj - 


श्रीमद भागवत कथा लिरिक्स (Shri Madbhaagwat Katha Lyrics in Hindi) - 

भागवत पुराण (Shrimad Bhagwat katha in hindi) - कलिकाल में सभी पुराण में सर्वाधिक आदरणीय पुराण में से एक है हमेशा से भागवत पुराण कथा (Shrimad Bhagwat Katha) हिन्दू समाज की धार्मिक सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता आ रहा हैं। यह वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। भागवत पुराण में वेदों उपनिषदों तथा दर्शन शास्त्र के गूढ़ एवं रहस्यमय विषयों को अत्यन्त सरलता के साथ निरूपित किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहना अधिक समीचीन होगा।


श्रीमद् भागवत कथा (bhagavat katha) - में सकाम कर्म निष्काम कर्म ज्ञान साधना सिद्धि साधना भक्ति अनुग्रह मर्यादा द्वैत-अद्वैत द्वैताद्वैत निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य-रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है।


यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक आधिदैविक और आध्यात्मिक आदि का शमन करता है। ज्ञान भक्ति और वैरागय का यह महान ग्रन्थ है। भागवत पुराण (bhagwat puran) में बारह स्कन्ध हैं जिनमें विष्णु के अवतारों का ही वर्णन है। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चौबीस अवतारों की कथा कही है।


भागवत पुराण कथा  (Bhagwat Mahapuran) – 

प्रथम स्कन्ध 

प्रथम स्कन्ध मे कुन्ती और भीष्म से ‘भक्ति योग’  (Bhakti yoga) के बारे मे बताया गया य और ‘परीक्षित की कथा’ के माध्यम से ये बताया गया है कि एक मरते हुये व्यक्ति को क्या करना चाहिये? क्योकि ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही हम सब का है क्योकि ‘सात दिन’ ही प्रत्येक जीव के पास है आठवां दिन है ही नही इन्ही सात दिन मे उसका जन्म होता है और इन्ही सात दिन मे मर जाता है।


द्वितीय स्कन्ध 

द्वितीय स्कन्ध मे ‘योग-धारणा’  (Yog Dharna) के द्वारा शरीर त्याग की विधि बराई गयी है भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिये उसके बारे बताया गया है।


तृतीय स्कन्ध 

इसमे ‘कपिल-गीता’ का वर्णन है जिसमे ‘भक्ति का मर्म’ ‘काल की महिमा’ और देह-गेह मे आसक्त पुरुषों की ‘अधोगति’ का वर्णन मनुष्य योनि को प्राप्त हुये जीव की गति क्या होती है। केवल भक्ति से ही वह इन सब से छूटकर भगवान की और जा सकता है।


चतुर्थ स्कन्ध 

इसमे यह बताया गया है कि यदि भक्ति सच्ची हो तो उम्र का बंधन नही होता ‘ध्रुव की कथा’ ने यही सिद्ध किया है। ‘पुरजनोपाख्यान’ मे इन्द्रियों की प्रबलता के बारे मे बताया गया है।


पंचम स्कन्ध 

इसमे ‘भरत-चरित्र’ के माध्यम से यह बताया गया है कि भरतजी कैसे एक हिरण के मोह मे पडकर अपने तीन जन्म गवा देते है। ‘भवाटवी’ के प्रसंग में यह बताया गया है कि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के बस मे होकर कैसे अपनी दुर्गति करता है। ‘नरकों का वर्णन’ बताया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति की अपने-अपने कर्मो के हिसाब से कैसे नरको की यातना भोजनी पडती है।


षष्ट स्कन्ध 

षष्ट स्कन्ध मे भगवान ‘नाम की महिमा’ के सम्बन्ध मे ‘अजामिलोपाख्यान’ है “नारायण कवच” का वर्णन है जिससे वृत्रासुर का वघ होता है नारायण कवच वास्तव मे भगवान के विभिन्न नाम है जिसे धारण करने वाले व्यक्ति को कोई परास्त नही कर सकता। ‘पुंसवन विधि’ एक संस्कार है जिसके बारे मे बताया गया है।


सप्तम स्कन्ध 

इसमे ‘प्रहलाद-चरित्र’ के माध्यम से बताया गया है कि हजारों मुसीबत आने पर भी भगवान का नाम न छूटे यदि भगवान का बैरी पिता ही क्यों न हो तो उसे भी छोड देना चाहिये। मानव-धर्म वर्ण-धर्म स्त्री-धर्म ब्रह्मचर्य गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमो के नियम का कैसे पालन करना चाहिये इसका निरुपण है। कर्म व्यक्ति को कैसे करना चाहिये यहि इस स्कन्ध का सार है।


अष्टम स्कन्ध 

भगवान कैसे भक्त के चरण पकडे हुये व्यक्ति का पहले और बाद मे भक्त का उद्धार करते है यह ‘गजेन्द्र-गाह कथा’ के माध्यम से बताया गया है। ‘समुद्र मंथन’ ‘मोहिनी अवतार’ वामन अवतार’ के माध्यम से भगवान की भक्ति और लीलाओं का वर्णन है।


नवम स्कन्ध 

नवम स्कन्ध मे ‘सूर्य-वंश’ और चन्द्र-वंश’ की कथाओं के माध्यम से उन राजाओं का वर्णन है जिनकी भक्ति के कारण भगवान ने उन्के वंश मे जन्म लिया। जिसका चरित्र सुनने मात्र से जीव पवित्र हो जाता है। यही इस स्कन्ध का सार है।


दशम स्कन्ध – पूर्वार्ध 

भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है बडे-बडे संत महात्मा भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध भगवान अजन्मा है उनका न जन्म होता है न मृत्यु श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे और क्यों होता है किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है भक्तो पर कृपा करने के लिये उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये चाहे जैसे भी पद्धति हो के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ उनकी सारी लीलाये केवल अपने भक्तो के लिये थी |

जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रिडा करनी चाही वह भक्त सखा गोपी के माध्यम से सामने आते गये उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध मे है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास महारास गोपीगीत तो दिवाति दिव्य लीलायें है। इन दिव्य लीलाओ का श्रवण चिंतन मनन बस यही जीवन का सार’ है।


दशम स्कन्ध – उत्तरार्ध 

इसमे भगवान की ‘ऎश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि नित्यचर्या गृहस्थ का बडा ही अनुपम वर्णन है।


एकादश स्कन्ध 

इसमे भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का श्राप लगाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे मेरे अपने भी उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।


द्वादश स्कन्ध 

इसमे कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नही क्योकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योकि इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है।


इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म-व्यवस्था को पूरी मान्यता दी गई है तथा स्त्री शूद्र और पतित व्यक्ति को वेद सुनने के अधिकार से वंचित किया गया है। ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इसलिए वंचित किया गया था कि उनके पास उन मन्त्रों को श्रवण करके अपनी स्मृति में सुरक्षित रखने का न तो समय था और न ही उनका बौद्धिक विकास इतना तीक्ष्ण था। किन्तु बाद में वैदिक ऋषियों की इस भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़ बना दिया और एक प्रकार से वर्गभेद को जन्म दे डाला।


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