कबीर दास के दोहे (Kabir Das Ke Dohe Lyrics in Hindi ) - Kabir Doha - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind


कबीर दास के दोहे (Kabir Das Ke Dohe Lyrics in Hindi ) - Kabir Doha - Bhaktilok


दोहा 

तूँ तूँ करता तूँ भया मुझ मैं रही न हूँ। 

वारी फेरी बलि गई जित देखौं तित तूँ ॥ 


बेटा जाए क्या हुआ कहा बजावै थाल। 

आवन जावन ह्वै रहा ज्यौं कीड़ी का नाल॥ 


मुखि कड़ियाली कुमति की कहण न देई राम॥ 


जिस मरनै थै जग डरै सो मेरे आनंद। 

कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद॥ 


मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तेरा। 

तेरा तुझकौं सौंपता क्या लागै है मेरा॥ 


पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा पंडित भया न कोइ। 

एकै आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होइ॥ 


काबा फिर कासी भया राम भया रहीम। 

मोट चून मैदा भया बैठ कबीर जीम॥ 


हम भी पांहन पूजते होते रन के रोझ। 

सतगुरु की कृपा भई डार्या सिर पैं बोझ॥ 


सब जग सूता नींद भरि संत न आवै नींद। 

काल खड़ा सिर ऊपरै ज्यौं तौरणि आया बींद॥ 


साँई मेरा बाँणियाँ सहजि करै व्यौपार। 

बिन डाँडी बिन पालड़ै तोलै सब संसार॥ 


बिरह जिलानी मैं जलौं जलती जलहर जाऊँ। 

मो देख्याँ जलहर जलै संतौ कहा बुझाऊँ॥ 


साँच बराबरि तप नहीं झूठ बराबर पाप। 

जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥ 


जौं रोऊँ तौ बल घटै हँसौं तौ राम रिसाइ। 

मनहीं माँहि बिसूरणां ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥ 


प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ प्रेमी मिलै न कोइ। 

प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब सब विष अमृत होइ॥ 


सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै। 

दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै॥ 


जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहिं। 

सब अँधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या माँहि॥ 


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराई। 

बूँद समानी समुंद मैं सो कत हेरी जाइ॥ 


मन के हारे हार हैं मन के जीते जीति। 

कहै कबीर हरि पाइए मन ही की परतीति॥ 


पाणी ही तैं पातला धूवां हीं तैं झींण। 

पवनां बेगि उतावला सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥ 


चकवी बिछुटी रैणि की आइ मिली परभाति। 

जे जन बिछूटे राम सूँ ते दिन मिले न राति॥ 


चाकी चलती देखि कै दिया कबीरा रोइ। 

दोइ पट भीतर आइकै सालिम बचा न कोई॥ 


सात समंद की मसि करौं लेखनि सब बनराइ। 

धरती सब कागद करौं तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥ 


कबीर कुत्ता राम का मुतिया मेरा नाऊँ। 

गलै राम की जेवड़ी जित खैंचे तित जाऊँ॥ 


मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासी जाणि। 

दसवाँ द्वारा देहुरा तामै जोति पिछांणि॥ 


माली आवत देखि के कलियाँ करैं पुकार। 

फूली-फूली चुनि गई कालि हमारी बार॥ 


हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी केस जले ज्यूँ घास। 

सब तन जलता देखि करि भया कबीर उदास॥ 


कबीर यहु घर प्रेम का ख़ाला का घर नाँहि। 

सीस उतारै हाथि करि सो पैठे घर माँहि॥ 


नैनाँ अंतरि आव तूँ ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ। 

नाँ हौं देखौं और कूँ नाँ तुझ देखन देऊँ॥ 


सतगुरु हम सूँ रीझि करि एक कह्या प्रसंग। 

बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग॥ 


मुला मुनारै क्या चढ़हि अला न बहिरा होइ। 

जेहिं कारन तू बांग दे सो दिल ही भीतरि जोइ॥ 


कलि का बामण मसखरा ताहि न दीजै दान। 

सौ कुटुंब नरकै चला साथि लिए जजमान॥ 


प्रेम न खेतौं नीपजै प्रेम न दृष्टि बिकाइ। 

राजा परजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाइ॥ 


कबीर मरनां तहं भला जहां आपनां न कोइ। 

आमिख भखै जनावरा नाउं न लेवै कोइ॥ 


हम घर जाल्या आपणाँ लिया मुराड़ा हाथि। 

अब घर जालौं तासका जे चले हमारे साथि॥ 


नर-नारी सब नरक है जब लग देह सकाम। 

कहै कबीर ते राम के जैं सुमिरैं निहकाम॥ 


Post a Comment

0Comments

If you liked this post please do not forget to leave a comment. Thanks

Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !