आँचल तो आँचल ही है नारी सिर का सृंगार,
जो भी इसे सम्हाल के रक्खे वो है पतिव्रता नार,
सुनता हूं सुनो कहता जिसे संसार आँचल है,
पतिवर्ता सती नारी का ये सृंगार आँचल है,
हमेसा साफ सच्चाई का सदा इजहार आँचल है,
दया और धर्म लज्जा का सदा रखवाला आँचल है,
इसी आँचल के पर्दे में जवानी मुस्कुराती है,
इसी आँचल में लज्जा गैर मर्दों से बचाती है,
इसी आँचल को दुल्हन ओढ़के ससुराल जाती है,
इसी आँचल के भीतर कुछ दिनों में लाल पाती है,
इसी आँचल की खातिर दुर्योधन तमाम जुल्म ढाया था,
इसी आँचल की खातिर दुस्सासन द्रोपदी को जंघेपर बिठाया था,
इसी आँचल को दुशासन ने जब सभा मे खिंचा था,
इसी आँचल को रोरो के द्रोपदी ने अंसुवो से सींचा था,
इसी आँचल की खातिर पांडवो ने मस्तक झुकाया था,
लगाई टेर जब द्रोपदी तो कृष्ण ने यही आँचल बढ़ाया था,
इसी आँचल की खातिर हरिश्चन्द्र ने मरघट पे दहाड़ा था,
इसी आँचल को तारा रानी ने मरघट पे फाड़ा था,
ये आँचल अगर नारिके सरसे सरकता है,
तो कांटा बनके दुनिया की निगाहों में खटकता है,
ये आचल जिसदिन नारीके सिरसे उतर जाए,
वो नारी शर्म वाली डूब के पानी मे मरजाये,
ये आँचल राधा रानी की है ये मैला हो नही सकता,
जरासा दाग लगजाये तो कोई धो नही सकता
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