राम कथा रुपी सरयू नदी का रुपक (Ram katha Rupee sarayoo nadee ka rupak Lyrics in Hindi) - Shri Ram Bhajan - Bhaktilok

Deepak Kumar Bind

राम कथा रुपी सरयू नदी का रुपक (Ram katha Rupee sarayoo nadee ka rupak Lyrics in Hindi) -


अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

भावार्थ:-  ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥


*चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।

सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥

भावार्थ:- उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥


* नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥

भावार्थ:-  यह सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बड़े) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली है॥7॥


दोहा :

* श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥

भावार्थ:-  तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥


चौपाई :

* रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥

सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥

भावार्थ:- सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥


* जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥

त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥

भावार्थ:- दोनों के बीच में भक्ति रूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥


*मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥

बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥

भावार्थ:-  इस (कीर्ति रूपी सरयू) का मूल मानस (श्री रामचरित) है और यह (रामभक्ति रूपी) गंगाजी में मिली है इसलिए यह सुनने वाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं॥3॥


* उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥

रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥4॥

भावार्थ:- श्री पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव हैं। श्री रघुनाथजी के जन्म की आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरंगों की मनोहरता है॥4॥


दोहाः

* बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।

नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥40॥

भावार्थ:- चारों भाइयों के जो बालचरित हैं वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत से कमल हैं। महाराज श्री दशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियों के सत्कर्म (पुण्य) ही भ्रमर और जल पक्षी हैं॥40॥


चौपाई :

* सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥

नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥

भावार्थ:-  श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं॥1॥


* सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥

घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥

भावार्थ:- इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है वही इस नदी के सहारे-सहारे चलने वाले यात्रियों का समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजी का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और श्री रामचंद्रजी के श्रेष्ठ वचन ही सुंदर बँधे हुए घाट हैं॥2॥


* सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥

कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥

भावार्थ:- भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है जो सभी को सुख देने वाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित होते हैं वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं॥3॥


* राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।

काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥

भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी के राजतिलक के लिए जो मंगल साज सजाया गया वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी॥4॥


दोहा :

* समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

भावार्थ:-  संपूर्ण अनगिनत उत्पातों को शांत करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥41॥


कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥

हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

भावार्थ:- यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥


* बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥

ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥

भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥





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