( सदगुरु कबीर साहेब लहरतारा में प्राकट्य )
सन्मार्ग से विचलित और वास्तविक लक्ष्य से भटके हुए
मानव को यथार्थ दिशा निर्देश के लिए अनादि ब्रम्हा सत्यपुरुष
परमात्मा की दिव्य विभूति को धराधाम पर आना पड़ता है
पन्दहवीं शताब्दी में ऐसे ही दिग्भ्रमित मानवता व्याकुल हो रही थी |
तत्कालीन दो मुख्य धर्मो से परस्पर असहिष्णुता व्याप्त थी
हिन्दू मुस्लिम ब्राम्हण मुल्ला स्पृश्य अस्पृश्य में वैमनस्य की
आंधी फ़ैल रही थी आद्यात्मिक नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही थी
लोग रूढ़ियों और ब्रम्हाण्डम्बरो में लिप्त थे भ्रष्टचाचार अनैतिकता
असहिष्णुता का नग तांडव हो रहा था निरंकुश शाशक निरीह प्रजापर
कहर ढा रहे थे ऐसे समय प्रसुप्त मानवता को जगाने के लिए भारत
के ऐतिहासिक धरातल पर सद्गुरु कबीर का शुभ अवतरण हुआ |
संवत १४५५ जेष्ठ पूर्णिमा सोमवार के मांगलिक ब्रम्हा मुहूर्त में
कशी के समीप लहरतारा तालाब के तट पर स्वामी रामानंद जी
के शिष्यअष्टानंदजी ध्यान में बैठे थे अचानक उन्हें आँखे खोलनी
पड़ी गगन मण्डल से एक दिव्य प्रकश पुंज तालाब में पूर्ण विकसित
कमल पुष्प पर उतरा क्षण मात्र में वह प्रकश पुंज बालक के रूप में
परिवर्तित हो गया स्वामी अष्टानंदजी उस अलौकिक घटना से चकित
हो गए उस घटना का अर्थ जानने के लिए वे अपने गुरु के पास चले
गए प्रकश पुंज के रूप में अवतरित वही बालक आगे चलकर सद्गुरुँ
कबीर साहेब के नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ ||
दोहा -
गगन मंडल से उतरे सद्गुरु सत्य कबीर |
जलज मांहि पौढ़न किये सब पिरन के पीर ||
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