सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे भजन इन हिंदी लिरिक्स

Deepak Kumar Bind

सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे भजन इन हिंदी लिरिक्स


गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥




यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।

शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।




देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।

ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।




या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।

गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।




हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।

कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ।




देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।

निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।




पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।

सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ।




एक ही बार परखिये ना वा बारम्बार ।

बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।




जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।




कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।

देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।




मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।

पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ।




माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।

आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ।




करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।

बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ।




कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।

सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ।




झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह

झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ।




मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।

तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।




यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।

ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।




सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।




बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।

 



बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।

जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।




जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।

जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।

 



ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।

 




दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।



काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।

पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।




पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।




ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।

तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।




चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।




माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।




निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।




मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।

फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।




जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।

खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।




बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।




हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।

सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा ह।में




झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।

माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।


261+ सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे  | Kabir Das Ke Dohe

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।

राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।




कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।

सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।




जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।

जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।




मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।

कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।




मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।

ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।




कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।

अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ।




जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।

ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ।




कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।

कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।




कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।

कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।




तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ।




धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।




जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।

जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।




जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।




तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।




तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।

सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।




जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए ।

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।




प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए ।

राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ।




साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।

सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।




जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।

ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।




ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।

प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।




लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।

कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।




कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।

नैनूं रमैया रमि रहा  दूजा कहाँ समाई ।




कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।

समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ।




इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।

लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव।




सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।

ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ।




नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।

ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।

 



रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।

हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ।




की मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।

तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ।




कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।

पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ।




जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ।




हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।

कौतिकहारा भी  जले कासों करूं पुकार ।




ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।




धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।

अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।




गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह।

आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।


261+ सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे  | Kabir Das Ke Dohe

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।

अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।




कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।

जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।




जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।

सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।




कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।



  

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।

मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।




प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।




पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।




कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।

एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।




नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।

कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।




राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।

जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।




कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।

काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।




शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।

तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।




साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।




माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।

हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।




जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।

जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ।




कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।

नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।




बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।

आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ।




हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।

आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।




तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।

मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ।




मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।

मेरी पग का पैषणा मेरी  गल की पास ।











Post a Comment

0Comments

If you liked this post please do not forget to leave a comment. Thanks

Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !