भगवान विष्णु हिस्ट्री [ भक्तिलोक ] Bhagawan vishnu history

Deepak Kumar Bind

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Bhagawan vishnu history

भगवान विष्णु  


वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं।


विष्णु पुराण अनुसार भगवान विष्णु निराकार परब्रह्म जिनको वेदों में ईश्वर कहा है चतुर्भुज विष्णु को सबसे निकटतम मूर्त एवं मूर्त ब्रह्म कहा गया है। विष्णु को सर्वाधिक भागवत एवं विष्णु पुराण में वर्णन है और सभी पुराणों में भागवत पुराण को सर्वाधिक मान्य माना गया है जिसके कारण विष्णु का महत्व अन्य त्रिदेवों के तुलना में अधिक हो जाता है ।



भगवान विष्णु के वामन अवतार

 गीता अध्याय ११ में विश्वस्वरूप विराट स्वरूप के अतिरिक्त चतुर्भुज स्वरूप के दर्शन देना सिद्ध करता है परमेश्वर का चतुर्भुज स्वरूप सुगम है।
ऋग्वेद एवं अन्य वेदों में भी अनेको सूक्त विष्णु को समर्पित है जिसको विष्णु सूक्त भी कहा गया है. ऋग्वेद में सर्वप्रथम स्वतंत्र रूप से विष्णु को मंडल १ के सूक्त २२ में वर्णन आया है जिसमे विष्णु के वामन अवतार के तीन पग से तीन लोक मापने के वर्णन है ।
अन्य रिग्वेदिक सूक्त १५६ , मंडल ७ सूक्त १०० में विष्णु के वर्णन हैं जिसमे विष्णु को इंद्र का मित्र एवं वृत्त के वध हेतु इंद्र की सहायता करना वर्णन है जिससे त्रिदेव के विष्णु की महत्ता समझ आती है ।

हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं।

पुराणानुसार विष्णु

पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।


ऋग्वेद तथा ब्राह्मणों में उपलब्ध संकेतों का पुराणों में पर्याप्त परिवर्धन हुआ-- कथात्मक भी विवरणात्मक भी और व्याख्यात्मक भी। पुराणों ने इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से रहित (परे) हैं। वे जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। जिस समय दिन, रात, आकाश, पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे. जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को विष्णु जी ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है -- सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ। इन सन्दर्भों से विष्णु की सर्वोच्चता तथा सर्वनियन्ता होने की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है।

भगवान विष्णु के दो रूप


माना गया है कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।

वैष्णवों के सिरमौर तथा 'पुराणों का तिलक के रूप में मान्य भागवत महापुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ। 

पुराणों में भगवान  विष्णु 


इसी प्रकार अधिकांश पुराणों में विष्णु को परम ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। उनसे सम्बद्ध कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना. तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना. शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत तथा शिवपुराण  जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। छिद्रान्वेषी लोग इन्हीं कथाओं का उपयोग मनमानी व्याख्या करके ईश्वर-विरोध के रूप में करते हैं। परन्तु इन्हें सान्दर्भिक ज्ञान की दृष्टि से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान कहा गया है।

पौराणिक मान्यताएँ


विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :-


श्रीवत्स = प्रधान या मूल प्रकृति
गदा = बुद्धि
शंख = पंचमहाभूतों के उदय का कारण तामस अहंकार
शार्ंग (धनुष) = इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस अहंकार
सुदर्शन चक्र = सात्विक अहंकार
वैजयन्ती माला = पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों का संघात वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा -- इन पाँच रत्नों से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक
बाण = ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय।
खड्ग = विद्यामय ज्ञान

इस प्रकार समस्त सृजनात्मक उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं।
श्रीविष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अतिप्रसिद्ध है :-
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभांगम्।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

ब्राह्मण-युग में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान है।
इस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब छीनकर इन्द्र को दे दी। वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है।

जानिए- क्या है भगवान विष्णु के नाम 'नारायण' और 'हरि' का रहस्य?
भगवान विष्णु को 'नारायण' और 'हरि' भी कहते हैं. आइए जानते हैं भगवान विष्णु को इन नामों से क्यों बुलाया जाता है....
पुराणों में भगवान विष्णु के दो रूप बताए गए हैं. एक रूप में तो उन्हें बहुत शांत, प्रसन्न और कोमल बताया गया है और दूसरे रूप में प्रभु को बहुत भयानक बताया गया है. जहां श्रीहरि काल स्वरूप शेषनाग पर आरामदायक मुद्रा में बैठे हैं. लेकिन प्रभु का रूप कोई भी हो, उनका ह्रदय तो कोमल है और तभी तो उन्हें कमलाकांत और भक्तवत्सल कहा जाता है।

भगवान विष्णु का शांत चेहरा

कहा जाता है कि भगवान विष्णु का शांत चेहरा कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति को शांत रहने की प्रेरणा देता है. समस्याओं का समाधान शांत रहकर ही सफलतापूर्वक ढूंढा जा सकता है. शास्त्रों में भगवान विष्णु के बारे में लिखा है।
"शान्ताकारं भुजगशयनं"। पद्मनाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
  

भगवान विष्णु शांत भाव 

इसका अर्थ है भगवान विष्णु शांत भाव से शेषनाग पर आराम कर रहे हैं।भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर मन में ये प्रश्न उठता है कि सर्पों के राजा पर बैठकर कोई इतना शांत कैसे रह सकता है? लेकिन वो तो भगवान हैं और उनके लिए सब कुछ संभव है. श्री विष्णु के पास कई अन्य शक्तियां हैं, जो आपको आश्चर्यचकित कर सकती हैं।
भगवान विष्णु के 'नारायण' नाम का रहस्य क्या है?
भगवान विष्णु अपने भक्तों पर हर रूप और हर स्वरूप से कृपा बरसाते हैं और इसीलिए वो जगत के पालनहार कहलाते हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि

भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों है ? उनके भक्त उन्हें नारायण क्यों बुलाते हैं ?

एक पौराणिक कथा के अनुसार पानी का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ है. पानी को "नीर" या "नर" भी कहा जाता है. भगवान विष्णु भी जल में ही निवास करते हैं. इसलिए "नर" शब्द से उनका नारायण नाम पड़ा है। इसका अर्थ ये है कि पानी में भगवान निवास करते हैं. इसीलिए भगवान विष्णु को उनके भक्त 'नारायण' नाम से बुलाते हैं ।

भगवान विष्णु को "हरि" नाम से भी बुलाया जाता है. हरि की उत्पत्ति हर से हुई है. ऐसा कहा जाता है कि "हरि हरति पापानि" जिसका अर्थ है हरि भगवान हमारे जीवन में आने वाली सभी समस्याओं और पापों को दूर करते हैं. इसीलिए भगवान विष्णु को हरि भी कहा जाता है, क्योंकि सच्चे मन से श्रीहरि का स्मरण करने वालों को कभी निऱाशा नहीं मिलती है ।
 कष्ट और मुसीबत चाहें जितनी भी बड़ी हो श्रीहरि सब दुख हर लेते हैं ।
भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ये उपाय करें -
- गुरुवार के दिन स्नान के बाद पीला वस्त्र धारण करें ।
- भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करें ।
- पूजा में पीले फूलों का प्रयोग करें ।
- भगवान विष्णु के सामने घी का दीपक जलाएं ।
- भगवान विष्णु के किसी भी मंत्र का जाप करें ।
 इस वर्ष में चैत्र पूर्णिमा 08 अप्रैल अर्थात दिन बुधवार को पड़ रही है।  इसका उपवास 7 अप्रैल से  ही लोग शुरू कर देते है।  चैत्र पूर्णिमा के शुभ दिन पर भगवान विष्णु के उपासक भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा की जाती है।  हिंदू धर्म  पंचांग में चैत्र महीने में आने वाली पूर्णिमा का बहुत बड़ा महत्व है।
७ April , 2020

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